Tuesday, December 28, 2021

अपने को वैश्य कहना छोड़िए


 अपने को वैश्य कहना छोड़िए।

  गांधी जी ने हरिजन शब्द से शूद्र शब्द को समाज से लगभग मिटा ही दिया है। समय था जब  समाज शूद्र शब्द से घृणा करता था। अब इस शब्द को केवल पढ़े लिखे लोग जानते हैं ,आम आदमी नहीं जानता। इसका कारण है किताबों में लिखा होना। किताबों/ग्रंथों में लिखा शब्द , चातुर्य वर्ण फिर प्रकट हो सकता है,यदि कट्टर ब्राह्मण राज्य फिर से स्थापित हो जाए।

"लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी है।"

चातुर्य वर्ण फिर नहीं,दुबारा नहीं ।

वैसे सुंडी कबीला  जातीय ब्राह्मण वंशज हैं।

सुंडी , जरत्कारु (जोगिया गोसाईं, जनजातीय तांत्रिक) एवं माता मनसा(नाग वंशी ,घर का टोटेमिक चिन्ह ,कुल पूजन,सिरा पिंडा,) के पुत्र आस्तिक मुनि के वंशज हैं। अर्थात नागवंशी हैं। ब्राह्मणों ने  नागों का अस्तित्व मिटाने के लिए राजा जनमेजय को उसकाया। बचें हुए नागों को दास बनाया। सामाजिक रुप से बहिष्कृत किया।जानते हैं इसका कारण ?? अधिकांश नाग क्षत्रिय थे, परशुराम जी के दादा जी ऋचिक मुनि(रिक्  वेद ,दशम मंडल)ने चातुर्य वर्ण का सिद्धांत दिया था। नागों ने चातुर्य वर्ण का विरोध किया था। नंदनि गौ एक बहाना था। कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम जी के पिता जमदग्नि ऋषि को मार डाला।तब से परशुराम जी ने 21बार क्षत्रियों को रहित कर दिया था। क्यों???

एक सिद्धांत के लिए बस!!!और हम उनके सिद्धांतों को मानने में गर्व महसूस करते हैं।

आप महसूस कीजिए कि वैश्य शब्द  वैश्या शब्द के कितना करीब है।

अपने आपको वैश्य कहना छोड़िए। (अगर कोई गलती हो तो क्षमा करेंगे।)

Monday, December 27, 2021

खोया संसार


 खोया संसार

फूलों की खिलखिलाहट, 

और भौरों का गुंजन,

हरी हरी वादियां,दूर दूर तक,

कुछ भी शेष न था,

जल रहा था गगन।

पेड़ गायब थे,

घासों का नामो निशान नहीं,

मैं फूट फूटकर रो पड़ा,

जब टूटा ए स्वप्न ।

लोग कह रहे थे,ऐसे ही रहेगा,

तीन चार साल,छाया था धूंध,

दुर्लभ था सूर्यदेव का दर्शन।

कौन कौन बच जाएगा,

सबसे बडा़ सवाल था,

ओह यह उजड़े हुए चमन ।

सभी भागते जा रहे थे,

 पीछे आसुरी धूंध और प्रचंड अग्नि

 छुट चुके थे असंख्य प्राण और प्रण।

भूख ऐसी,प्यास ऐसी,

सांस भी पराए हो चले थे,

लोग विलीन हो रहे थे क्षण क्षण।

मैं कहां था? बीता हुआ कल था

या आनेवाला कल??

ओह! मेरे बिछड़े चमन।

जो होना था, हो चुका,

हो चुका अग्नि शमन।

 कष्ट का लम्बा समय गुजर गया,

फिर से फूट पड़ीं जमीन से कोपलें,

लोगों ने पाला उसे पालतु की तरह,

फिर से सज गए वन उपवन।

पर जो कहते थे यह जमीन मेरा है,

यह धरती हंसती थी,"मुर्खों तुम सब हमारे हो,

तुम्हें मिल जाना है इसी मिट्टी में।"

निंद से खुल चुके थे मेरे नयन।

       -मनोज कुमार मेहता 'मैत्रेय'

               14/12/2021