खोया संसार
फूलों की खिलखिलाहट,
और भौरों का गुंजन,
हरी हरी वादियां,दूर दूर तक,
कुछ भी शेष न था,
जल रहा था गगन।
पेड़ गायब थे,
मैं फूट फूटकर रो पड़ा,
जब टूटा ए स्वप्न ।
लोग कह रहे थे,ऐसे ही रहेगा,
तीन चार साल,छाया था धूंध,
दुर्लभ था सूर्यदेव का दर्शन।
कौन कौन बच जाएगा,
सबसे बडा़ सवाल था,
ओह यह उजड़े हुए चमन ।
सभी भागते जा रहे थे,
पीछे आसुरी धूंध और प्रचंड अग्नि
छुट चुके थे असंख्य प्राण और प्रण।
भूख ऐसी,प्यास ऐसी,
सांस भी पराए हो चले थे,
लोग विलीन हो रहे थे क्षण क्षण।
मैं कहां था? बीता हुआ कल था
या आनेवाला कल??
ओह! मेरे बिछड़े चमन।
जो होना था, हो चुका,
हो चुका अग्नि शमन।
कष्ट का लम्बा समय गुजर गया,
फिर से फूट पड़ीं जमीन से कोपलें,
लोगों ने पाला उसे पालतु की तरह,
फिर से सज गए वन उपवन।
पर जो कहते थे यह जमीन मेरा है,
यह धरती हंसती थी,"मुर्खों तुम सब हमारे हो,
तुम्हें मिल जाना है इसी मिट्टी में।"
निंद से खुल चुके थे मेरे नयन।
-मनोज कुमार मेहता 'मैत्रेय'
14/12/2021
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